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...गर थम जायें पहियें, तो पहिया थम जाये

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निशांत सिंह। ‘‘गर थम जायें पहियें, तो पहिया थम जाये’’ इन शब्दों का पूर्णतः सम्बंध भारवाहन चालकों से है। जी हां... हमारे तथाकथित आधुनिक और उभरते हुए समाज का ऐसा तपका, जिनको सम्मान के दो शब्द भी मुसस्सर नहीं होते, और इस लेख के माध्यम से हम भी उनसे कोई खास हमदर्दी जाहिर नहीं करना चाहते, क्यूंकि सच तो यह है कि हमें भी नहीं है कोई अनुभूति उनके दिनचर्या की। मगर इसके बाद भी हम इतना तो कह ही सकते हैं कि जितना एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति अपनी छाती ठोक कर कहता है कि हमारे टैक्स के पैसों से सरकार चलती है, सारे सरकारी लोगों को तनख्वाह मिलती है... उससे कहीं गुना ज्यादा एक भारवाहन चालक सरकार को टैक्स की कमाई करवा देता है, उसके बाद भी वह अपने जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह जाता है। हम बात को ज्यादा गहराई में नहीं ले जाना चाहते, इसलिए आपसे सिर्फ इतना साझा करते हैं कि एक चालक जब अपने भारवाहन को सड़क पर लेकर निकलता है तब सरकार को टोल टैक्स मिलता है, जब वह डीजल खपत करता है तब सरकार को टैक्स मिलता है, जब वह अपने वाहन में सामान की लदाई या उतराई करवाता है उस वक्त भी सरकार को टैक्स मिलता है, और ना हीं जा...

निजी समाचार चैनलों का समाज में प्रभाव

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निशांत सिंह। नई दिल्ली 24 अप्रैल। आज के दौर में समाचार एक मूलभूत आवश्यकता बन गया है। सुबह चाय संग अखबार, या टीवी में समाचार... ना हो तो मानों दिन की शुरूआत में कमी लगने लगती है। संचार जैसी जरूरत का माध्यम बने समाचार को पूरा करने में सरकारी या निजी चैनलों ने कसर नहीं छोड़ी है। पल-पल की खबर हर पल आप तक पहुंचाने में समाचार चैनल जैसे दिन रात एक कर देने से पीछे नहीं हट रहे हैं।  मगर मौजूदा समय का एक सच यह भी है कि पत्रकारों पर लांछन लगाने में भी कोई कमी नहीं दिख रही। ‘‘गोदी मीडिया’’, ‘‘बिकाऊ मीडिया’’, ‘‘चाटू पत्रकार’’, ये ऐसे आरोप हैं जो समाचार चैनलों के दामन पर लगने से बच नहीं सके। भारत में टीवी समाचार की शुरूआत जैसे ‘‘दूरदर्शन’’ के माध्यम से हुई थी, बीतते समय के साथ तमाम टीवी समाचार चैनल वैसी अपनी साख बचा नहीं सके। एक दौर में जहां समाचार चैनल पर शालीनता, धौर्यता, विन्रमता की कोई कमी नहीं थी, वहीं आज के समय में ये शब्द समाचार चैनलों से नदारद ही हो गये हैं।  दूरदर्शन के माध्यम से टीवी समाचार चैनल की शुरूआत जिस मकसद के साथ की गई थी अर्थात शिक्षार्थ, सूचना और मनोरंजन के लिए की गई थी, ...

क्या साजो-सामान मान कर होने लगी महिलाओं की प्रस्तुति

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निशांत सिंह। Ladies and Gentlemen put your hands together for the very beautiful…. ‘‘फोर दि वैरी ब्यूटीफुल...’’। क्या ये कहना गलत होगा कि महिलाओं के लिए उनके हुनर और उनकी मेहनत से पहले उनकी सुंदरता को वरीयता दी जाने लगी है? बढ़ते आधुनिक दौर में जहां महिलायें किचन से बाहर आकर देश के विकास और चुनौतीपूर्ण नौकरी पेशे में भी पुरूषों के बराबर ही नहीं है, बल्कि कई हद तक आगे भी जा चुकी है, वहीं आज औद्योगिक जगत में महिलाओं की प्रस्तुति एक साजो-सज्जा का सामान बनता जा रहा है।  यहां चाहें मीडिया जगत की बात करें, शिक्षा जगत की बात करें, सिनेमा जगत की बात करें, डाक्टरी पेशे की बात करें, वकालती पेशे की बात करें- ज्यादातर दफ्तरों में आगवानी के कार्य हेतु महिलाओं को चुना जाना एक प्रकार से उनको सजावट के सामान के समान ही चमक-दमक का साधन मान लेने के बराबर ही नजर आता है। आमतौर पर देखा जाता है कि जब कभी किसी नये दफ्तर के आरंभ की तैयारी की जाती है तो उससे पहले ही तय कर दिया जाता है कि मुख्य द्वार के ठीक सामने एक अच्छी की टेबल डाल कर, आस-पास छोटे-छोटे गमले सजाने के बाद एक सुन्दर ही लड़की को बिठा देंगे ताकि ...

अखबारः लाइसेंस तो जैसे खैरात बांट दिये

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137 करोड़ की आबादी के लिए 162 करोड़ अखबार सरकारी पैसे पर डाका डालने का जरिया बन गया मीडिया निशांत सिंह। अगर कहा जाये कि देश की 137 करोड़ की आबादी के लिए देश में प्रकाशित होते हैं 162 करोड़ अखबार, तो सुनने में अचम्भित जरूर करेगा लेकन सच है। क्योंकि ये आंकड़े ‘‘भारत के समाचारपत्रों के पंजीकरण का कार्यालय’’ भारत सरकार द्वारा वैबसाइट पर जारी किये गये हैं। संविधान के चोैथे स्तम्भ का दर्जा प्राप्त मीडिया का मजाक बना दिया है अधिकारियों ने, या कहो कि सरकारी पैसे पर डाका डालने का जरिया बना दिया मीडिया को, तो  कतई गलत नहीं है। ये बात सच है कि भारत देश में अखबारों के प्रकाशन के लिए जितने लाइसेंस बांटे गये हैं उतने तो शायद प्रकाशित भी नहीं होते होंगे, लेकिन कागजी भूख भरने को जुगाड़ ही पर्याप्त है। ऐसा भी हो नहीं सकता कि जिम्मेदार अधिकारी भी अंजान होंगे इस धांधली से, लेकिन भागीदारी सारे गुनाह माफ कराने का दम रखती है। अगर बात करें केन्द्रीय बजट 2020-21 की तो 3376 करोड़, 2021-22 तो 4071 करोड़ और केन्द्रीय बजट 2022-23 की तो 3980 करोड़ जारी हुआ था सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को, लेकिन इसे अफसरों से मिलीभगत क...

अफसरशाहीः शोषण या अभिशाप

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 निशांत सिंह। कहते हैं वर्दी घटिया है, कोसते नहीं सकुचाते हैं। गर भाई फोड़े सिर भाई का, बिन पुलिस नहीं रह पाते हैं।। छेड़छाड़ के बीस मुकदमें, मानों छूट लिखा कर लाते हैं। फंदा डाले जब पुलिस तो, उत्पीडन का पाठ पढ़ाते हैं।। हफ्ते में दो दिन की छुट्टी, मेरे देश के लोग मनाते हैं। घंटे भर भी सो जाये पुलिस, सारे शहर में ढ़ोल बजाते हैं।। सही बात है, पुलिस समय पर नहीं पहुंचती, पुलिस रिश्वत लेती है, पुलिस बेगुनाहों को परेशान करती है, ये वो आरोप हैं जो हम अक्सर सुनते ही रहते हैं। लेकिन एक पुलिस वाले की कैसी दिनचर्या होती है? क्या क्या तकलीफें जिनसे वो रोज गुजरते हैं? वो शायद आप हम नहीं जान सकते।  शोषण एक ऐसा शब्द है जो इंसान को अंदर से झकझोर के रख देता है। इंसान सहता है, पर कुछ कहता नहीं। यूं तो पुलिस होती है इस शब्द के खिलाफ कार्यवाही करने को, लेकिन क्या पुलिस खुद इस शोषण से बच सकी है? बिल्कुल नहीं। उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद जिले का एक गांव था, जहां रोज की तरह तड़के सुबह युवाओं में पुलिस भर्ती और सेना भर्ती की तैयारी दिखने लगती है। इन्हीं युवाओं में एक था सुरेन्दर कुमार। सब कहते हैं कि किस्म...

Be Mr. Late, but don’t be Late Mr

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  बी मिस्टर लेट, बट डोन्ट बी लेट मिस्टर दुर्घटना से देर भली सड़क सुरक्षा को अपनाना है, जीवन को सुखद बनाना है यातायात नियमों को अपनाओं, जीवन अपना सुरक्षित बनाओ ऐसे हजारों स्लोगन आपको रोड पर चलते दिख जायेंगे। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अत्यधिक दुर्घटना सड़क यातायात के दौरान ही होती है। सड़क यातायात विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय माना जाता है। रेल के साथ साथ सड़क मार्गों से यातायात और समान की ढुलाई आदि सारे संसार में की जाती है। यह देश के विकास और औद्योगिक दृष्टि से आवश्यक भी है। परन्तु अफसोस है कि जहां वाहनों की बढ़ती संख्या ऊंचाईयां छूती जा रहीं हैं, मगर सड़क निर्माण में तेजी तो मानों जुमला बन गया है। आधिकारिक वैबसाइट  data.gov.in  के अनुसार भारत में जहां सन् 1951 में मौजूद गाड़ियों की संख्या लगभग 306000 थी, वही 2013 तक बढ़ते बढ़ते करीब 182445000 हो गयी।  इसका एक महत्वपूर्ण कारण है हमारे देश में वाहन चालकों केे लिए कोई खास प्रशिक्षण नियम नहीं है, और जुगाड़बाजी हाथ लग गयी तो लाइसेंस मिलना मुश्किल काम है ही नहीं। जिस तरह एक भरी बंदूक खतरनाक होती है, उसी तरह आज सड़क पर...

सरकारी स्कूल तो कमाई का अड्डा बन गये

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निशांत सिंह संविधानिक अधिकार के कारण सरकार को प्राथमिक शिक्षा तो देनी पड़ती है समाज के हर तपके को, लेकिन ये सरकारी स्कूल तो कमाई का अड्डा बनते जा रहे हैं। सरकारी पैसा कई मदों के रूप में स्कूल तक तो भेजा जाता है, मगर उसका इस्तमाल देखते ही पता चल जाता है। बात करें चाहें बाऊंड्री वाॅल की, फर्नीचर की, रंगरोगन की, वृक्षारोपण की, शौचालय की, बिजली की, पानी की, मिड्डे मील की, यूनिफाॅर्म की, किताबों की, बजीफे की, इन सभी मदों का बजट हर साल करोड़ों में होता है, बजट आता भी है, तो ना जाने कैसे जमीनी स्तर तक पहुंच नहीं पाता। क्या इसकी वजह मान सकते हैं कि शासन से लेकर प्रशासन तक बजट को कई टैबल से होकर गुजरना पड़ता है? या कह सकते हैं कि अफसरों ने भी सरकारी पैसा बपौती समझ लिया है? निदेशालय से लेकर बीएसए दफ्तर तक कौन अनजान रह पाया है स्कूलों के जमीनी हालात से? शायद हर कोई जानता है कि जिले के सभी सरकारी विद्यालयों में जितने बच्चों का दाखिला लिखा गया है, उतने तो मौजूद भी नहीं है। कहने को पंखें और बल्ब लगते तो हैं स्कूलों में, लेकिन एक महीने के अंदर ही चोरी भी हो जाते हैं, जरूरत पड़ती है जब कागज का पेट भरने की...