...गर थम जायें पहियें, तो पहिया थम जाये
‘‘गर थम जायें पहियें, तो पहिया थम जाये’’ इन शब्दों का पूर्णतः सम्बंध भारवाहन चालकों से है। जी हां... हमारे तथाकथित आधुनिक और उभरते हुए समाज का ऐसा तपका, जिनको सम्मान के दो शब्द भी मुसस्सर नहीं होते, और इस लेख के माध्यम से हम भी उनसे कोई खास हमदर्दी जाहिर नहीं करना चाहते, क्यूंकि सच तो यह है कि हमें भी नहीं है कोई अनुभूति उनके दिनचर्या की। मगर इसके बाद भी हम इतना तो कह ही सकते हैं कि जितना एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति अपनी छाती ठोक कर कहता है कि हमारे टैक्स के पैसों से सरकार चलती है, सारे सरकारी लोगों को तनख्वाह मिलती है... उससे कहीं गुना ज्यादा एक भारवाहन चालक सरकार को टैक्स की कमाई करवा देता है, उसके बाद भी वह अपने जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह जाता है।
हम बात को ज्यादा गहराई में नहीं ले जाना चाहते, इसलिए आपसे सिर्फ इतना साझा करते हैं कि एक चालक जब अपने भारवाहन को सड़क पर लेकर निकलता है तब सरकार को टोल टैक्स मिलता है, जब वह डीजल खपत करता है तब सरकार को टैक्स मिलता है, जब वह अपने वाहन में सामान की लदाई या उतराई करवाता है उस वक्त भी सरकार को टैक्स मिलता है, और ना हीं जाने कितने प्रकार से वह जाने-अनजाने सरकार की कमाई हर रोज करवाता है, और इन सबके बदले उसको मिलता है तो थोड़ा सा मेहनताना। हालांकि हम इस क्रमांक में उस उगाही का उल्लेख नहीं करना चाहते जो रात-रात भर सड़क पर वाहन चैकिंग के नाम की जाती है।
अगर बात करें सरकारी सुख सुविधाओं की, तो यदि कोई सरकारी कर्मचारी या अधिकारी अपने ड्यूटी के समय प्राण त्याग दे, तो बदले में सरकार द्वारा उसके परिवारीजनों को मुआवजा, पेंशन, परिजन को सरकारी नौकरी आदि राहत के रूप में दी जाती है। यदि कोई सरकारी कर्मचारी या अधिकारी किसी दुर्घटना में ग्रस्त होकर अपने अंगों से वंचित हो जाता है, तब भी उसकी सरकारी आमदनी बंद नहीं होती। मगर जब कोई चालक किसी सड़क दुर्घटना में अपने शरीर से निरर्थक हो जाये, तो उसको ना कोई पेंशन मिलती है, ना कोई मुआवजा मिलता है, ना ही किसी परिजन को नौकरी दी जाती है, और अगर दुर्भाग्य से वह अपने प्राण त्याग दे, तो उसके घर वालों का रूख वह वाहन मालिक भी नहीं करता, जिसका वह मुलाजिम था।
वैसे तो भारत में हर नागरिक के पोषाहार और जीवन स्तर ऊंचा रखने का कर्तव्य सरकार का है, संविधान के अनुच्छेद 47 में इसका उल्लेख भी है, मगर सवाल यह रह जाता है कि क्या कोई चालक, जो देश की जीडीपी में अपना इतना सहयोग दे रहा है, वह भी खुद को इस अनुच्छेद अन्तर्गत लाभांवित होने की उम्मीद रख सकता है? क्यूंकि बेहतर पोषाहार तो रही दूर की बात, चालक अपनी जीवनशैली का कितना हिस्सा सड़क पर गुजार देता है, शायद वह भी याद नहीं रख सकता। आज के दौर में हमारे बीच एक ओर तो होती है कार्यकाल का समय चिन्हित करने की बात, यदि 08 घंटे की नौकरी में आधा घंटा भी बढ़ा कर काम करवा लिया जाये, तो कर्मचारियों के बीच जैसे भूचाल मच जाता है। मगर दूसरी ओर ठहरे यह चालक, जो कई बार पूरा-पूरा दिन गुजार देते हैं अपनी गाड़ी के अंदर ही बैठे-बैठे, क्यूंकि शहर में इंट्री अक्सर बंद होती है दिन में, फिर चाहें धूप हो, आंधी-बारिश हो, या सर्दी हो, ये चालक अपने वाहन को लेकर नहीं घुस सकते शहर के अंदर।
हालांकि अक्सर ऐसा भी देखा जाता है कि ये भारवाहन चालक अपनी पर्याप्त नींद तक से वंचित रह जाते हैं, क्यूंकि करना पड़ जाता है सफर दिन-दिन, रात-रात भर का, जिसका कारण बनते हैं वाहन स्वामी और कई बार तो मौसम भी, जिसकी मार भी इन्हीं पर पड़ जाती है भारी। यदि वाहन में लदे माल को सही समय तक नहीं पहुंचाया जगह पर, तो शायद सामान की गुणवत्ता भी जवाब दे जाये। ऐसे में अगर कहें कि शायद ही कोई इस बात की भूति करता हो कि यदि ये चालक अपना काम दो दिन के लिए भी बंद कर दें, तो देश में कितना हाहाकार मच सकता है, ना ही आपके द्वार सब्जी पहुंच पायेगी, ना ही राशन, ना ही दूध, ना ही कोई सुविधा।
इसलिए आवश्यक है कि सरकार अपनी मंशा जगाये, और कदम उठाये ऐसे योद्धाओं को भी सराहने की। हम कोई ज्यादा महंगी मांग नहीं कर रहे, मगर क्या सड़क किनारे नहीं बन सकते रैन-बसेरे, नहीं खुल सकता एक छोटे से भी कमरे में मुफ्त चिकित्सालय। हालांकि सरकार को सलाह देने के काबिल तो नहीं हैं हम भी, क्यूंकि सड़क सुरक्षा जैसे नियम भी सरकार अक्सर उनके साथ बंद कमरे में बनाती है, जिनको अपनी गाड़ी चलाये हुए भी जमाने गुजरे होते हैं।

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