रिश्वतः पीढ़ी-दर-पीढ़ी

 निशांत सिंह

आज मुझ पर आरोप लगा कि मैंने रिश्वत ली। हांजी मैने रिश्वत ली, पहले भी ली है, इस बार भी ली। 

अपना परिचय दूं तो पेशे से मैं शहरी निकाय में बाबू के पद पर हूं, इसके बाद भी घर खाली हाथ जाऊं, अच्छा थोड़ी ना लगूंगा। जब तक फाइल तैयार नहीं करूंगा, चैक तैयार नहीं करूंगा, साहब के सामने फाइल लाऊंगा नहीं, उनसे साइन करवाऊंगा नहीं, तो कैसे मिलेगा पैसा ठेकेदारों को? इतना काम करना पड़ता है वो भी सरकारी आदमी बनने के बाद, तो क्या हुआ जो चाय-पानी ले लिया? तो क्या हुआ जो किसी पैसे वाले के साथ खाने पर चला गया? क्या हुआ जो महंगी दारू पीली? क्या हुआ जो बातों बातों में अपनी मांग रख दी? मैने भी दी थी रिश्वत, मैने भी ली... बुरा क्या किया।

बात है करीब 18 साल पहले की, मैं स्नातक में उच्च कोटि से पास हुआ। दाखिला भी ऐसे ही नहीं मिल गया था, किसान बाप ने जमीन बेची तो जाकर डिग्री मिली। डिग्री के बाद तो बस खुली आंखों से सपने देखे नौकरी के, तरक्की के, मां बाप के आराम के, बहन की शादी के, अच्छे और खुशहाल परिवार के। लेकिन पता नहीं था कितना नादान हूं मैं। आखिर जिंदगी भी तो सिर्फ घर से काॅलेज तक की ही देखी थी ना, नहीं सोचा कि डिग्री सिर्फ मेरे पास नहीं है, जमीन सिर्फ हमारी नहीं बिकी, घर तो कई ऐसे है... जिनका अपना घर भी नहीं बचा। फिर भी चाहा कि बस नौकरी लग जाये, कहीं भी, कैसे भी।

खैर किस्मत ने साथ दिया जो सरकारी भर्ती निकल आयी, आवेदन किया लेकिन काफी नहीं था, क्योंकि नौकरी थी कुछ पदों की, आवेदन किये गये लाखोें में। जुगाड़ के नाम पर दुकानें तो बहुत थी, पर जुगाड़ लगाना आसान ना था। जमीन तो पहले ही चली गई है, अब दलालों के चाय-पानी में कहीं घर भी ना चला जाये। लेकिन कहते हैं कि बाप है तो सब है, नहीं सोचा पापा ने और चढ़ाया चंदा जुगाड़ की खातिर। बस उसी दिन सोच लिया था कि एक दिन सब वापस लाऊंगा, दिन रात एक कर दूंगा, खूब मेहनत करूंगा, लेकिन ये सब वापस लेकर आऊंगा। फिर तो बस ईमानदारी की कसम खाकर लग गये काम पर। शुरूआती दिन तो खूब मेहनत की, लेकिन पानी में कूद पर सूखा बचता कौन है। हमें भी लग गयी थी बीमारी सरकारी लोगों वाली। तोंद तो कुछ खास आई नहीं लेकिन काम करने में आलस बहुत आने लगा, और ऊपर से साथ के लोगों की संगत में इतना आत्मविश्वास भी आ गया था कि चाय-पानी मांगना तो जैसे अब हमारा हक महसूस होने लगा।

इस बार भी बात खुलती नहीं, लेकिन ना जाने कहां से मीडिया वालों को भनक लग जाती है जो पूरा पन्ना भर देते हैं भ्रष्टाचारी लिख-लिख कर। बस ऐसा ही एक अखबार छपकर आया और मेरी दौड़ती गाड़ी पटरी से उतार दी। ये तो किसी ने देखा नहीं कि हाथ रंगीन सिर्फ मेरे नहीं है, लेकिन बड़े अफसरों की आवाज के आगे मेरी आखिर सुनेगा कौन? अब बातें तो हो रही हैं जांच की, सजा की। लेकिन इस शोरगुल में मिला था एक जुगाड़ का व्यापारी, बोला भी है कि परेशान ना हो, बस थोड़ा चाय-पानी... हीहीहीही।

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