अफसरशाहीः शोषण या अभिशाप

 निशांत सिंह।

कहते हैं वर्दी घटिया है,

कोसते नहीं सकुचाते हैं।

गर भाई फोड़े सिर भाई का,

बिन पुलिस नहीं रह पाते हैं।।


छेड़छाड़ के बीस मुकदमें,

मानों छूट लिखा कर लाते हैं।

फंदा डाले जब पुलिस तो,

उत्पीडन का पाठ पढ़ाते हैं।।


हफ्ते में दो दिन की छुट्टी,

मेरे देश के लोग मनाते हैं।

घंटे भर भी सो जाये पुलिस,

सारे शहर में ढ़ोल बजाते हैं।।


सही बात है, पुलिस समय पर नहीं पहुंचती, पुलिस रिश्वत लेती है, पुलिस बेगुनाहों को परेशान करती है, ये वो आरोप हैं जो हम अक्सर सुनते ही रहते हैं। लेकिन एक पुलिस वाले की कैसी दिनचर्या होती है? क्या क्या तकलीफें जिनसे वो रोज गुजरते हैं? वो शायद आप हम नहीं जान सकते। 

शोषण एक ऐसा शब्द है जो इंसान को अंदर से झकझोर के रख देता है। इंसान सहता है, पर कुछ कहता नहीं। यूं तो पुलिस होती है इस शब्द के खिलाफ कार्यवाही करने को, लेकिन क्या पुलिस खुद इस शोषण से बच सकी है? बिल्कुल नहीं।

उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद जिले का एक गांव था, जहां रोज की तरह तड़के सुबह युवाओं में पुलिस भर्ती और सेना भर्ती की तैयारी दिखने लगती है। इन्हीं युवाओं में एक था सुरेन्दर कुमार। सब कहते हैं कि किस्मत का धनी था जो यूपी पुलिस में भर्ती हो गयी उसकी। सुरेन्दर था भी बहुत मेहनती, लम्बी दौड़ में, ऊंची कूद में, सबमें वो अव्वल था। उसका सपना था कि बदन पर वर्दी हो, वो भी देश की सेवा करे, नागरिकों की सुरक्षा करे। सपना पूरा हुआ भी, सुरेन्दर को यूपी पुलिस में असिस्टेंड सब-इंस्पेक्टर (एएसआई) के पद पर तैनाती मिली।

नौकरी के कुछ महीने बाद ही सुरेन्दर की तैनाती कर दी गई आई0जी0 साहब के बंगले पर। वैसे तो आई0जी0 साहब का बंगला मानों मण्डल की कमान होता है। लेकिन ऐसे ही बड़े अफसरों के बंगले होते हैं जहां होता हैं सुरेन्दर जैसे पुलिसकर्मियों का शोषण। जी हां शोषण... और इस बात को कहने में ही नहीं, दोहराने में भी कोई संकोच नहीं है।

शहर में पुलिस विभाग के लिए श्रमशक्ति का कितना भी अभाव हो, लेकिन अफसरों और सफेदपोशों के शानोशौकत में कोई कमी आखिर बर्दास्त करी कैसे जा सकती है? साहब के गेट पर चोैकीदार भी पुलिस वाला हो, ड्राइवर भी पुलिस वाला लो, किचन में बाबर्ची भी पुलिस वाला हो, माली भी पुलिस वाला हो, यहां तक कि कुत्ता घुमाने वाला भी पुलिस वाला ही हो। अब इसको सनक बोलो या शोषण लेकिन क्या इन सभी कर्मियों का पुलिस वर्दी में होना जरूरी है? अगर यही पुलिस कर्मी किसी थाने में तैनात होते तो क्या विभाग के श्रमशक्ति पर कुछ भी असर नहीं पड़ता? क्यूंकि सिर्फ एक अफसर नहीं है जहां का ऐसा आलम हो, हर जिले में, हर राज्य में करीब-करीब यही माहौल है।

चोैकीदार, ड्राइवर, बाबर्ची, माली ये सब भी कोई अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे नहीं होते, इनमें शायद ही कोई ऐसा हो जिसके पास कोई उच्च स्तर से कम की डिग्री हो। लेकिन ये शोषण के शिकार किसी से कह तक नहीं पाते। जब कभी गये भी अपने घर वापस तो मारे शर्म के बता भी नहीं सकते कि काम क्या करते हैं, मुंह से सिर्फ इतना ही निकलता है कि आई0जी0 साहब के बंगले पर ड्यूटी है।

अगर बात करें सरकारी आंकड़ों की तो हर साल करीब 50 हजार से 75 हजार तक पुलिस कर्मी सिर्फ वीआईपी सुरक्षा में ही तैनात पाये जाते हैं। अब सवाल तो यह भी उठता है कि लाॅ एण्ड आर्डर के रखवालों को भी आखिर सुरक्षा चाहिए क्यों? मोदी सरकार द्वारा जहां वीआईपी कल्चर को समाप्त करने के लिए कदम उठाये गये थे, वहीं इस शोषण को रोकने के लिए क्या किसी न्यायालय का दरवाजा नहीं बजाना चाहिए?

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