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Showing posts from March, 2022

अखबारः लाइसेंस तो जैसे खैरात बांट दिये

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137 करोड़ की आबादी के लिए 162 करोड़ अखबार सरकारी पैसे पर डाका डालने का जरिया बन गया मीडिया निशांत सिंह। अगर कहा जाये कि देश की 137 करोड़ की आबादी के लिए देश में प्रकाशित होते हैं 162 करोड़ अखबार, तो सुनने में अचम्भित जरूर करेगा लेकन सच है। क्योंकि ये आंकड़े ‘‘भारत के समाचारपत्रों के पंजीकरण का कार्यालय’’ भारत सरकार द्वारा वैबसाइट पर जारी किये गये हैं। संविधान के चोैथे स्तम्भ का दर्जा प्राप्त मीडिया का मजाक बना दिया है अधिकारियों ने, या कहो कि सरकारी पैसे पर डाका डालने का जरिया बना दिया मीडिया को, तो  कतई गलत नहीं है। ये बात सच है कि भारत देश में अखबारों के प्रकाशन के लिए जितने लाइसेंस बांटे गये हैं उतने तो शायद प्रकाशित भी नहीं होते होंगे, लेकिन कागजी भूख भरने को जुगाड़ ही पर्याप्त है। ऐसा भी हो नहीं सकता कि जिम्मेदार अधिकारी भी अंजान होंगे इस धांधली से, लेकिन भागीदारी सारे गुनाह माफ कराने का दम रखती है। अगर बात करें केन्द्रीय बजट 2020-21 की तो 3376 करोड़, 2021-22 तो 4071 करोड़ और केन्द्रीय बजट 2022-23 की तो 3980 करोड़ जारी हुआ था सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को, लेकिन इसे अफसरों से मिलीभगत क...

अफसरशाहीः शोषण या अभिशाप

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 निशांत सिंह। कहते हैं वर्दी घटिया है, कोसते नहीं सकुचाते हैं। गर भाई फोड़े सिर भाई का, बिन पुलिस नहीं रह पाते हैं।। छेड़छाड़ के बीस मुकदमें, मानों छूट लिखा कर लाते हैं। फंदा डाले जब पुलिस तो, उत्पीडन का पाठ पढ़ाते हैं।। हफ्ते में दो दिन की छुट्टी, मेरे देश के लोग मनाते हैं। घंटे भर भी सो जाये पुलिस, सारे शहर में ढ़ोल बजाते हैं।। सही बात है, पुलिस समय पर नहीं पहुंचती, पुलिस रिश्वत लेती है, पुलिस बेगुनाहों को परेशान करती है, ये वो आरोप हैं जो हम अक्सर सुनते ही रहते हैं। लेकिन एक पुलिस वाले की कैसी दिनचर्या होती है? क्या क्या तकलीफें जिनसे वो रोज गुजरते हैं? वो शायद आप हम नहीं जान सकते।  शोषण एक ऐसा शब्द है जो इंसान को अंदर से झकझोर के रख देता है। इंसान सहता है, पर कुछ कहता नहीं। यूं तो पुलिस होती है इस शब्द के खिलाफ कार्यवाही करने को, लेकिन क्या पुलिस खुद इस शोषण से बच सकी है? बिल्कुल नहीं। उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद जिले का एक गांव था, जहां रोज की तरह तड़के सुबह युवाओं में पुलिस भर्ती और सेना भर्ती की तैयारी दिखने लगती है। इन्हीं युवाओं में एक था सुरेन्दर कुमार। सब कहते हैं कि किस्म...

Be Mr. Late, but don’t be Late Mr

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  बी मिस्टर लेट, बट डोन्ट बी लेट मिस्टर दुर्घटना से देर भली सड़क सुरक्षा को अपनाना है, जीवन को सुखद बनाना है यातायात नियमों को अपनाओं, जीवन अपना सुरक्षित बनाओ ऐसे हजारों स्लोगन आपको रोड पर चलते दिख जायेंगे। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अत्यधिक दुर्घटना सड़क यातायात के दौरान ही होती है। सड़क यातायात विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय माना जाता है। रेल के साथ साथ सड़क मार्गों से यातायात और समान की ढुलाई आदि सारे संसार में की जाती है। यह देश के विकास और औद्योगिक दृष्टि से आवश्यक भी है। परन्तु अफसोस है कि जहां वाहनों की बढ़ती संख्या ऊंचाईयां छूती जा रहीं हैं, मगर सड़क निर्माण में तेजी तो मानों जुमला बन गया है। आधिकारिक वैबसाइट  data.gov.in  के अनुसार भारत में जहां सन् 1951 में मौजूद गाड़ियों की संख्या लगभग 306000 थी, वही 2013 तक बढ़ते बढ़ते करीब 182445000 हो गयी।  इसका एक महत्वपूर्ण कारण है हमारे देश में वाहन चालकों केे लिए कोई खास प्रशिक्षण नियम नहीं है, और जुगाड़बाजी हाथ लग गयी तो लाइसेंस मिलना मुश्किल काम है ही नहीं। जिस तरह एक भरी बंदूक खतरनाक होती है, उसी तरह आज सड़क पर...

सरकारी स्कूल तो कमाई का अड्डा बन गये

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निशांत सिंह संविधानिक अधिकार के कारण सरकार को प्राथमिक शिक्षा तो देनी पड़ती है समाज के हर तपके को, लेकिन ये सरकारी स्कूल तो कमाई का अड्डा बनते जा रहे हैं। सरकारी पैसा कई मदों के रूप में स्कूल तक तो भेजा जाता है, मगर उसका इस्तमाल देखते ही पता चल जाता है। बात करें चाहें बाऊंड्री वाॅल की, फर्नीचर की, रंगरोगन की, वृक्षारोपण की, शौचालय की, बिजली की, पानी की, मिड्डे मील की, यूनिफाॅर्म की, किताबों की, बजीफे की, इन सभी मदों का बजट हर साल करोड़ों में होता है, बजट आता भी है, तो ना जाने कैसे जमीनी स्तर तक पहुंच नहीं पाता। क्या इसकी वजह मान सकते हैं कि शासन से लेकर प्रशासन तक बजट को कई टैबल से होकर गुजरना पड़ता है? या कह सकते हैं कि अफसरों ने भी सरकारी पैसा बपौती समझ लिया है? निदेशालय से लेकर बीएसए दफ्तर तक कौन अनजान रह पाया है स्कूलों के जमीनी हालात से? शायद हर कोई जानता है कि जिले के सभी सरकारी विद्यालयों में जितने बच्चों का दाखिला लिखा गया है, उतने तो मौजूद भी नहीं है। कहने को पंखें और बल्ब लगते तो हैं स्कूलों में, लेकिन एक महीने के अंदर ही चोरी भी हो जाते हैं, जरूरत पड़ती है जब कागज का पेट भरने की...

रिश्वतः पीढ़ी-दर-पीढ़ी

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 निशांत सिंह आज मुझ पर आरोप लगा कि मैंने रिश्वत ली। हांजी मैने रिश्वत ली, पहले भी ली है, इस बार भी ली।  अपना परिचय दूं तो पेशे से मैं शहरी निकाय में बाबू के पद पर हूं, इसके बाद भी घर खाली हाथ जाऊं, अच्छा थोड़ी ना लगूंगा। जब तक फाइल तैयार नहीं करूंगा, चैक तैयार नहीं करूंगा, साहब के सामने फाइल लाऊंगा नहीं, उनसे साइन करवाऊंगा नहीं, तो कैसे मिलेगा पैसा ठेकेदारों को? इतना काम करना पड़ता है वो भी सरकारी आदमी बनने के बाद, तो क्या हुआ जो चाय-पानी ले लिया? तो क्या हुआ जो किसी पैसे वाले के साथ खाने पर चला गया? क्या हुआ जो महंगी दारू पीली? क्या हुआ जो बातों बातों में अपनी मांग रख दी? मैने भी दी थी रिश्वत, मैने भी ली... बुरा क्या किया। बात है करीब 18 साल पहले की, मैं स्नातक में उच्च कोटि से पास हुआ। दाखिला भी ऐसे ही नहीं मिल गया था, किसान बाप ने जमीन बेची तो जाकर डिग्री मिली। डिग्री के बाद तो बस खुली आंखों से सपने देखे नौकरी के, तरक्की के, मां बाप के आराम के, बहन की शादी के, अच्छे और खुशहाल परिवार के। लेकिन पता नहीं था कितना नादान हूं मैं। आखिर जिंदगी भी तो सिर्फ घर से काॅलेज तक की ही देखी ...